आज १४ फ़रवरी को वैलेंटाइन डे बनाने वालों में से मैं खुद तो बिलकुल नहीं हूँ, लेकिन जो मानते हैं या मानते थे या मनाने का सोचते है व् उन सब के लिए जिनका इश्क क़ामिल न हो पाया उनके लिए मशहूर शायर साहिर लुधयानवी की नज़्म – ‘मता-ए-ग़ैर’ शेयर कर रहा हूँ.https://youtu.be/HTBIIvSlhUU
जैसा की शाहरुख खान ने – ऐ दिल है मुश्किल में कहा है, “एक तरफ़ा पयार की ताक़त ही कुछ और होती है ….. औरों के रिश्तों के तरह यह दो लोगों में नहीं बटती….. सिर्फ मेरा हक है इस्पे” https://youtu.be/KUraH1ribN8
मता-ए-ग़ैर
मेरे ख़्वाबों के झरोकों को सजाने वाली, तेरे ख़्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं,
पूछ कर अपनी निगाहों से बता दे मुझ को, मेरी रातों के मुक़द्दर में सहर है कि नहीं..
चार दिन की ये रिफ़ाक़त जो रिफ़ाक़त भी नहीं, उम्र भर के लिए आज़ार हुई जाती है,
ज़िंदगी यूँ तो हमेशा से परेशान सी थी, अब तो हर साँस गिराँ-बार हुई जाती है….
मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में, तू किसी ख़्वाब के पैकर की तरह आई है,
कभी अपनी सी कभी ग़ैर नज़र आई है, कभी इख़्लास की मूरत कभी हरजाई है…
प्यार पर बस तो नहीं है मिरा लेकिन फिर भी, तू बता दे कि तुझे प्यार करूँ या न करूँ,
तू ने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें, उन तमन्नाओं का इज़हार करूँ या न करूँ…
तू किसी और के दामन की कली है लेकिन, मेरी रातें तिरी ख़ुश्बू से बसी रहती हैं,
तू कहीं भी हो तिरे फूल से आरिज़ की क़सम, तेरी पलकें मिरी आँखों पे झुकी रहती हैं….
तेरे हाथों की हरारत तिरे साँसों की महक, तैरती रहती है एहसास की पहनाई में,
ढूँडती रहती हैं तख़्ईल की बाँहें तुझ को, सर्द रातों की सुलगती हुई तन्हाई में….
तेरा अंदाज़-ए-करम एक हक़ीक़त है मगर, ये हक़ीक़त भी हक़ीक़त में फ़साना ही न हो,
तेरी मानूस निगाहों का ये मोहतात पयाम, दिल के ख़ूँ करने का एक और बहाना ही न हो ….
कौन जाने मिरे इमरोज़ का फ़र्दा क्या है, क़ुर्बतें बढ़ के पशेमान भी हो जाती हैं,
दिल के दामन से लिपटती हुई रंगीं नज़रें, देखते देखते अंजान भी हो जाती हैं…
मेरी दरमांदा जवानी की तमन्नाओं के, मुज़्महिल ख़्वाब की ताबीर बता दे मुझ को,
मेरा हासिल मेरी तक़दीर बता दे मुझ को……
Disclaimer: This has nothing to do with me or any resemblance to any person dead or alive that I may have known or know, so no post-mortems required.