सत्ता के साथी

पूर्व केंद्रीय मंत्री सुश्री गिरिजा जी व्यास अक्सर अपने भाषण में कहती हैं की किसी ज्योतिष या भोपा ने नहीं कहा था कांग्रेस पार्टी से जुड़ने के लिए. हम कांग्रेसी हैं क्यूंकि हम इस की विचारधारा में विश्वास करते हैं.

हम विश्वास करते हैं उसके सिधान्तों और मूल्यों में. सब की अपनी विचारधारा होती है और होनी भी चाहिए क्यूंकि यह हमारे व्यक्तित्व की पहचान होती है. कोई वामपंथी होता है, कोई संघी और कोई कांग्रेसी. पार्टी से आपकी नाराज़गी हो सकती है लेकिन इस का मतलब यह नहीं की कोई अपनी विचारधारा में पूर्ण बदलाव कर दें.

दशकों से जिस विचारधारा के खिलाफ खड़े रहे उस से एक झटके में कैसे गले लगा सकते हैं. चुनाव में हार जीत लगी रहती है. राजनीती में सब की मह्त्वाकान्शायें होती है लेकिन सत्ता सुख के लिए इस में बदलाव कहाँ तक सही है??

भारतीय संसदीय प्रणाली ब्रिटेन के वेस्टमिनिस्टर मोडल पर आधारित है. वहां पर भी एक समय पर कंजरवेटिव पार्टी 18 साल (1979 – 1997) तक सत्ता पर काबिज़ रही और हार गयी. फिर संघर्ष किया और अब वापस पिछले 10 साल से ज्यादा से पार्टी सत्ता में है और शायद ही वहां के अग्रिम पंक्ति के नेताओं ने सत्ता सुख के लिए अपना पाला बदला हो.

भारतीय राजनैतिक परिवेश में देखें तो ऐसे उदहारण देखने को मिलेंगे की किसी के पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से टकराव रहा हो तो उन्होनें विचारधरा से समझौता नहीं करा , चाहे वह शरद पवार महाराष्ट्र में हों, ममता बैनर्जी बंगाल में या 1996 में कांग्रेस नेतृत्व से अलगाव के कारण पार्टी छोड़ खुद की पार्टी बनाने वाले माधवराव सिंधिया, जी.के.मूपनार और अन्य.

एक प्रमुख कारण जो हाल ही में विपक्षी पाले में जाने वाले नेताओं ने बतलाया है की वह जनता की सेवा करने के लिए ऐसा मजबूर हो गए थे. यह सरासर झूठ है और सत्तानशीं होने के सिवा कुछ नहीं. अगर जनता की सेवा करने ही है तो आपको सत्ता की कोई ज़रुरत नहीं. इस कोरोना काल में ही देख लें तो यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष बी.वि.श्रीनिवास, तहसीन पूनावाला को या सोनू सूद को. कोई सत्ता में नहीं था, पुलिसिया कार्यवाही करी गयी उन पर फिर भी इस दूसरी लहर में जनता की सेवा के लिए झुझते रहे. जैसे की किसी ने सही लिखा है –

कुछ कर गुजरने के लिए, मौसम नहीं मन चाहिए

साधन सभी जुट जायेंगे, संकल्प का धन चाहिए

जिन नेताओं ने पाला बदला है उनके पास सेवा के लिए संसाधन की कमी तो बिलकुल नहीं थी. कमी थी तो केवल अपनी विचारधारा पर तटस्थ रहने की और जो चीज़ भरपूर थी वह थी सत्ता की भूख और खुद की  राजनैतिक मंशा पूरी करने की.

2014 से जब से एक विचारधारा की पार्टी सत्ता में आई है उनका एक मात्र रास्ता चुना है सत्ता में बने रहने का और उन का बढ़चढ़ का साथ दिया है कुछ एक नेताओं ने.

तो इसलिए अब वक़्त आ गया है की सब राजनैतिक व्यक्ति आत्म-मंथन कर लें की उनके लिए क्या ज़रूरी है विचारधारा या सत्ता क्यूंकि हम सच्चे कांग्रेस जन तैयार हैं लम्बे संघर्ष और लड़ाई के लिए.


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