प्रिय उदयपुरवासियों,
सदियों से मैं आपके इस फलते – फूलते शहर की साक्षी रहीं हूँ
मैं यहाँ तब भी थी जब मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़गढ़ हुआ करती थी. पिछोली गांव के निकट मेरा निर्माण 14वीं शताब्दी में पीछू चिड़िमार बंजारे ने करवाया था और तत्पश्चात महाराणा उदयसिंह द्वितीय ने इस शहर की खोज के बाद मेरा विस्तार किया.
मेरे ही एक द्वीप में बने जगमंदिर में शहज़ादा खुर्रम ने अपने वालिद जहाँगीर से बगावत कर यहाँ 1623-1624 में पनाह पायी थी, जो आगे चल कर मुग़ल सलतनत के बादशाह शाहजहाँ बने. 1769 में जब माधव राव सिंधिया ने शहर पर आक्रमण किया तब एकलिंग गढ़ की खाइयों में भरे मेरे ही पानी ने आप के पूर्वजों को मराठाओं से सुरक्षित रखा था.
मेरे चारों ओर शहर वासी बसते गए और अपने सुविधा अनुसार मेरा उपयोग और उपभोग करते रहे. मेरी अनेक घाट आपकी कई पीढ़ियों के काम आई इनमें से कुछ अब आपकी पहुँच से बहुत दूर जा चुकी हैं.
कालांतर में समय बदला, राज बदला और साथ आये नए कानून. परिवारों को अपने पुश्तैनी मकान में बढ़ते कुनबे को समाने की जदोजहद करनी पड़ी. एक कमरा या छोटा बदलाव न कर सके. कानून ने उनके हाथ बाँध दिए.
वैसे आज कल मेरे प्रति आप सब का प्रेम देख कर मन प्रफुल्लित हो जाता है. लेकिन फिर सोचती हूँ यह प्रेम तब क्यूँ न जागा जब पर्यटन के नाम पर मेरा दोहन किया गया. आलिशान होटलों का निर्माण कराया गया और व्यवासियों ने कमाई के लिए रोड से ना ले जाकर अपने अतिथियों को मेरे सीने को चीरते हुए अनेक नावें उतार दी. शांत रातों को विलासिता भरे अनेक जलसों की साक्षी आप और मैं भी रहीं हूँ. लेकिन आपका दर्द शायद तब इतना न झलक पाया.
मेरे नाम पर कईयों ने रोटी सेकी : किसी ने हाई कोर्ट में अपनों को बचने के लिए नवीन निर्माण को पुराना बता दिया तो किसी ने शुतुरमुर्ग की तरह अपना मुंह मेरी रेत में छिपा लिया. रसूख और रुतबे के आगे सब जायज़ हो गया जो न हो सका तो बस आम शहर वासी का झील किनारे अपने आशियाने का अपने ज़रूरत के हिसाब से विस्तार.
शिकायत तो मुझे आप से भी है !! मैंने न जाने आपकी कितनी गन्दगी अपने में समा ली है. पहले तो ठीक था लेकिन अब इस बढती आबादी की गन्दगी मेरे लिए साफ़ करना मेरे बस में नहीं.
आशा है की आप मेरे चारों और बसे मंदिरों में शाम की आरती की घंटियाँ सुन मेरे लिए भी एक छोटी सी प्रार्थना ज़रूर करेंगे.
आपकी,
पिछोला झील