आदरणीय पासवान जी,
आपको बहुत बहुत धन्यवाद देना चाहूँगा क्योंकि आपकी उस आधुनिक अवं सोशलिस्ट सोच की लिए जिसके रहते अब हम जैसे मासूम ग्राहकों को यह बावर्चीखाने लूट न सकेंगे. जो आपने सोचा है सही है, हमें जानने का हक है की झींगे की एक प्लेट में कितने मिलेंगे (वैसे आपके सहयोगी दल को जान के ख़ुशी होगी की मैं शाकाहारी हूँ इसलिए मेरे सन्दर्भ में झींगे की जगह पनीर बटर मसाला पढ़ा जाये). http://www.ndtv.com/india-news/how-many-prawns-on-your-plate-fix-portions-says-minister-ram-vilas-paswan-1679934. मेरा बस चले तो कल ही हाजीपुर शिफ्ट हो कर आपका मतदाता बन जाओं और निश्चित करों की अगले चुनाव में आपका १९७७ का रिकॉर्ड तोड़ कर ऐतेहासिक जीत हो.
आपसे सहमत हूँ आज कल मालूम ही नहीं पड़ता की पनीर टिक्के की एक प्लेट में कितने टुकड़े आयेंगे, और यही कारण है की जब समूह में खाना खाने जाते हैं तो मालूम नहीं रहता की कितनी प्लेट आर्डर की जाए, कैलकुलेशन गड़बड़ा जाता है. और परिणाम स्वरुप शर्मा-शर्मी में कई बार दूसरों के अनुपात या तो कम या ज्यादा खान पड़ता है. सोशलिस्ट सोच जो कहती है की ‘Equitable distribution of food items’ होना चाहिए, हार जाती है.
यही मुख्य कारण है मुझे गुजराती खाना बहुत पसंद है, यहीं में यह भी स्पष्ट करना चाहता हूँ की दिल्ली में सत्ता नशीं जो लोग हैं इस से इस का कोई सरोकार नहीं हैं. खैर छोडिये गुजराती खाना और खासकर उनकी थालियाँ का शायद ही कोई दुनिया में मुकाबला कर सकता है, एक थाली, जेब के अनुसार व्यंजन और जो भी विकल्प चुनिए खाइए (कॉलेज के दिनों में मित्रों के साथ मैं थाली कभी खायी नहीं हमेशा ठूसी है) पेट भर के बिना किसी टेंशन के बस थाली पुरसी और चालु !! ना मीनू देखना, न कोई कैलकुलेशन और डिवीज़न करना.
आप श्री से गुज़ारिश है की सब से पहले आप के डिपार्टमेंट के इंस्पेक्टरों को यह जो आलिशान ‘Fine Dining’ / ‘Gourmet Restaurant’ हैं इनको को पाबन्द करें, यह सब ऊँची दूकान और फीका पकवान की कहावत को सच करते हैं. इन टाइप की जगह में जेबें खाली हो जाती हैं लेकिन ना तो पेट भरता हैं और न ही भाषा समझ में आती है. इनको पाबंद करें की हर डिश का एक मिनिमम वज़न हो क्योंकि जब तक स्वाद समझ में आता है डिश ख़तम हो गयी होती है, और दूसरी आर्डर करने को पॉकेट मना कर देती है.
अंत में फिर से आपको और आपकी सरकार को इस क्रांतिकारी पहल के लिए बहुत बहुत साधुवाद, आप ही हैं जो जनता और गायों की बेहतरी के बारे में सोचते हैं. और हम सब को मदिरापान से दूर कर मंदिर और अध्यात्म की और ले कर जा रहे हैं. जैसे की एक संस्कृत श्लोक में कहा गया “यदन्नं भक्षयेन्नित्यं जायते तादृशी प्रजा” यानी जैसा खायेंगे वैसा सोचेंगे.
कहीं २०१९ के लिए यह आपकी एक और तय्यारी तो नहीं , खैर जाने दीजिये आप तो बस इस फैसले को लागू कीजिये !!
आपका भावी वोटर,
दीपक